Jajbaat Samajhta Hun Tere Din Raat Samajhta Hun

जज़्बात समझता हूँ तेरे , दिन रात समझता हूँ,

रिशता तेरा मेरा क्या है , नहीं जानता
पर इस रिश्ते की हर एक टहनी , हर एक शाख़ समझता हूँ

कबूल है मुझे तेरा ख़फ़ा हो जाना कभी किसी बात पर,
तेरी क़दर करता हूँ , अपनी औकात समझता हूँ

माना तू अपनी नहीं , ग़ैर भी नहीं ,
तेरी हर आहट , हर साँस में चुभी इक फाँस समझता हूँ

तकलीफ हुई जब किनारा किआ तुझसे मैंने,
मेरी बढ़ती हुई उम्र , घटती हुई चाह
ये मेरा नया अंदाज़ समझता हूँ

यक़ीन है कभी तो माफ़ करोगी तुम,
गलती भी छोटी कहाँ की मैंने
अपनी गलतियों की लाश को ढोना मैं
खूब समझता हूँ।




लोगों के कहने सुनने से कोसों दूर एक नीम के तले,
साँसे लेता , हौंसला भरता ,
फ़िर भी तेरी आवाज़ सुनकर ही
अपनी हर आस में भरता हूँ

अब कैसे जीऊँगा आगे ,
मैं बखूब समझता हूँ।

तेरे ताने झूठे ना थे , मेरे बहाने भी तो सच्चे थे,
ताने और बहाने का अंतर अब मैं,
साफ़ समझता हूँ।

ज़िन्दगी की लंबाई ना मापी ,
गहराई इतनी माप ली मैंने
कि अब गहरे रिश्तों मैं खुद को धक्का देने से डरता हूँ

आगे ना जाने क्या होगा मेरा तेरा ,
इस ख्याल से लाहदा न हो ज़ेहन ,
होगा जो भी सुकून लायेगा
यही उम्मीद मैं करता हूँ

– By Yadunandan Sharma (Kangra, Himachal Pradesh)